जानिए दवाई की MRP का खेल : 50 पैसे में बनने वाली दवा 10 रुपये में बिकती है, 195 की दवा एक महीने में 350 की हो जाती है
सोशल मीडिया पर कोरोना के दौरान दी जाने वाली एक दवा की फोटो वायरल हुई। फोटो में आइवरमेक्टिन टैबलेट (Ivermectin Tablets USP Dinzo-12) के दो पत्ते रखे हुए हैं। एक की मैन्यूफैक्चरिंग डेट सितंबर 2020 है और दूसरे की अक्टूबर 2020। पहले की MRP 195 रुपये है और दूसरे की 350 रुपये। सोशल मीडिया यूजर्स इस तस्वीर को शेयर करते हुए दवाई बनाने वाली फार्मास्युटिकल कंपनी और सरकार पर सवाल खड़े कर रहे हैं।
एक यूजर अनिरुद्ध मालपानी लिखते हैं, 'फार्मा कंपनी लालची है। कोरोनाकाल में दवाई का दाम बढ़ा दिया, क्योंकि ये दवा कोरोना पीड़ित मरीजों को दी जा रही है। इसलिए एक महीने में करीब 100% रेट बढ़ गया! सरकार क्यों सोई हुई है?' दिल्ली के डॉक्टर सैय्यद फैजान अहमद लिखते हैं, 'ये लूट है।'
खुद को एंटरप्रन्योर बताने वाले यूजर अभिषेक इसका जवाब देते हैं। कहते हैं, 'सन फार्मा ने जो टैबलेट बनाए हैं, उसका दाम कम है, लेकिन ब्लू बेल फार्मा ने भी वही टैबलेट बनाई है, उसकी कीमत ज्यादा है।'
इस मामले को देखकर दो सवाल दिमाग में आते हैं...
1. दवाई के दामों में इतना ज्यादा फर्क क्यों है?
2. दवाई का दाम कैसे तय होता है?
जब हमने पड़ताल की तो इन सवालों के चौंकाने वाले जवाब सामने आए। देश में करीब 3000 फार्मास्यूटिकल कंपनियां दवाई बनाती हैं। इनमें 90% से ज्यादा प्राइवेट कंपनियां हैं। प्राइवेट कंपनियों के दांव-पेंच इतने शक्तिशाली और सरकार के कानून इतने कमजोर हैं कि दवाई अपने असली दाम से 2000% ज्यादा तक बिक रही हैं। इसके बारे में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति को लेटर भी लिखे जा चुके हैं। आइए भारत के दवाई मार्केट के पन्नों को सिलसिलेवार तरीके से खोलते हैं...
सीनियर साइंटिस्ट और 'डिसेंटिंग डायग्नोसिस' के लेखक डॉ. अरुण गद्रे कहते हैं, 'सरकारी संस्था तमिलनाडु कार्पोरेशन, फार्मा कंपनियों से एंटी हाइपरटेंशन की दवा 50 पैसे में खरीदती है। यही दवा आम लोगों को 10 रुपये में बेची जाती है।'
वे दावा करते हैं, 'मेरे पास कैंसर की एक दवाई की पर्ची रखी हुई है। ये रिटेलर को 100 रुपये में मिली थी। इसमें दवाई बनाने वाली फार्मास्युटिकल कंपनी का प्रॉफिट दिया जा चुका है। होलसेलर्स या डिस्ट्रीब्यूटर्स का मार्जिन दिया जा चुका है। 100 रु. की गोली की MRP 900 रु. लिखी है। रिटेलर इसे 200 से लेकर 900 रुपये तक बेच रहे हैं।' वे इस जबर्दस्त मुनाफाखोर सिस्टम के लिए कमजोर सरकारी नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हैं।
दवाई के दाम ज्यादा हैं। लोगों से मनमाना पैसा वसूला जा रहा है। सरकार को इसका एहसास 1996 में हुआ। एक एसेंशियल मेडिसिन की लिस्ट बनाई गई। इसमें 289 सबसे ज्यादा जरूरी दवाइयों के दाम सुधारने की बात कही गई। सरकार ने 1997 में नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी यानी NPPA बनाकर कहा कि दवाई के दाम सुधारिए।
NPPA ने साल 2005 से ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर यानी DPCO के तहत दवाइयों की MRP तय करना शुरू किया। एसेंशियल दवाइयों की लिस्ट लंबी की। दरअसल, सरकार दवाई को दो कैटेगरी में देखती है।
1. एसेंशियल ड्रग
2. नॉन एसेंशियल ड्रग
सरकार ने कहा कि मल्टीविटामिन, कफ सिरप, टॉनिक इन सब नॉन एसेंशियल मेडिसिन के दाम पर सरकार अभी काम नहीं कर सकती। अभी उसका पूरा फोकस एसेंशियल ड्रग पर है।
2018 तक सरकार ने 874 एसेंशियल ड्रग चुन लिए और इसकी MRP तय करने लगी। ये बात जुदा है कि भारत में 10,000 से ज्यादा दवाइयां बनाई और बेची जाती हैं। 874 को छोड़कर बाकी को फार्मास्युटिकल कंपनियां मनमाफिक दामों पर बेच रही हैं।
इस सिस्टम के लगाने के बाद NPPA ने मार्च 2017 में एक ट्वीट किया। इसमें बताया कि अथॉरिटी की कोशिशों से कैंसर की दवाओं की कीमत 10% से 86% तक कम हो गई हैं। डायबिटीज की दवाएं भी 10% से 42% तक सस्ती हो गईं।
यानी 2017 तक कैंसर और डायबिटीज की दवाएं अपनी असली कीमत से 86% ज्यादा दाम पर बेची जाती रहीं।
केमिकल एंड फर्टिलाइजर मंत्री मनसुख एल मांडविया ने दिसंबर 2017 में राज्यसभा में कहा कि NPPA के लगातार दवाइयों की कीमत पर लगाम लगाने से एक साल में मरीजों को 11,365 करोड़ रुपये की बचत हुई।
पिछले साल निजामाबाद चैंबर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष पीआर सोमानी ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को लेटर लिखा। कहा कि एसेंशियल दवाओं को अब भी अपने असली दाम से 500% से 2000% ज्यादा कीमतों पर बेचा जा रहा है। अगर सरकार काम करे तो दवाई के दाम 8 गुना तक कम कर सकती है।
वे कहते हैं, 'अभी ड्रग कंट्रोलर के ऑफिस में जो लोग दवाइयों को पास करते हैं, उनमें कुछ डॉक्टर होते हैं, कुछ फार्माकोलॉजी वाले होते हैं और कुछ फॉर्मासिस्ट लॉबी काम करती है। सरकार की कमेटी में लोगों को मार्केट का अंदाजा नहीं, घर में बैठ कर काम करते हैं।'
आगे कहते हैं, 'इसी तरह केमिकल एंड फर्टिलाइजर मिनिस्ट्री में कुछ सरकारी डॉक्टर हैं, उन्हें जमीनी हकीकत का अंदाजा नहीं होता। कुछ तो मेरे मित्र हैं, नाम नहीं लूंगा। पर ये सच है। फिर हेल्थ मिनिस्ट्री कहती है कि दवाई में सबसे नई चीजें क्यों नहीं डाली गईं। हमारी दवाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर की होनी चाहिए।'
उनके मुताबिक, 'जब दवाई उपलब्ध नहीं है। सॉल्ट का कॉम्बिनेशन उपलब्ध नहीं है। फार्मास्युटिकल कंपनी कैसे वो बना देंगी। इन सब पेंचों के बाद कंपनियां जो दवाइयां बना रही हैं, उनके बारे में सही कहें तो 90% डॉक्टरों को पता तक नहीं होता कि मरीज के लिए सबसे सही दवा क्या होगी।'
वह सवाल खड़ा करते हैं कि आखिर सरकार खुद क्यों नहीं दवाइयां बनाती हैं। आज 90% से ज्यादा दवाई प्राइवेट कंपनियां बनाती हैं। अगर सरकार मेडिकल के क्षेत्र में खुद को आगे बढ़ाए तो अभी मरीज जितना खर्च करते हैं उसके 10% में ही सबका इलाज हो जाएगा।
सीनियर साइंटिस्ट अरुण गद्रे कहते हैं, 'लगातार ऐसी दवाइयां बन रही हैं, जिनमें सॉल्ट कॉम्बिनेशन ठीक नहीं है। उनके खाने से कोई फायदा नहीं होता। कंपनियां चीन से पाउडर मंगाकर गोली बना रही हैं। ये कचरा हैं, इन्हें बाहर कर देना चाहिए।'
अरुण गद्रे बताते हैं, 'नसों में डाली जाने वाली छोटी ट्यूब स्टेंट की पूरी यूनिट पहले 14,000 रुपये में भारत आ जाती थी। लेकिन आम लोगों को ये 1.05 लाख तक में बेचा जाता था। अब इस पर थोड़ी लगाम लगी है। ऐसे ही दूसरी नॉन एसेंशियल चीजों पर ध्यान देना होगा। दरअसल ये मल्टी-बिलियन डॉलर्स का खेल है इसलिए सरकार भी चुप रहती है।'