कहानी रीवा राजघराने की : 450 साल से पूजे जा रहें भगवान श्रीराम, तीन राज्यों में फैला था रीवा साम्राज्य : राजाधिराज के विशेष पूजन की है परंपरा
विश्व में श्रीराम की पूजा भगवान के रूप में होती है, लेकिन रीवा रियासत में 450 साल से भगवान श्रीराम राजा के रूप में पूजे जाते हैं। दिवाली पर 35 पीढ़ियों से सिंहासन पर श्रीराम-सीता के साथ लक्ष्मण को विराजित किया जाता है और रियासत का राजा, सेवक के रूप में जमीन पर बैठकर पूजा-अर्चना करता है। राजशी पूजन के बाद राजाधिराज मंदिर में भगवान श्रीराम को ले जाया जाता है, लेकिन सिंहासन खाली रहता है, लेकिन उस सिंहासन पर कोई बैठता नहीं है।
इतिहासकार बताते हैं कि समय के साथ राजपरिवार के जो भी शासक महाराजा के रूप में आते गए। वे सब राजगद्दी के सामने नतमस्तक रहे। रीवा रियासत के 35वी पीढ़ी के महाराजा पुष्पराज सिंह और उनके पुत्र युवराज दिव्यराज वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को आज भी निभा रहे हैं।
लक्ष्मण को मानते हैं कुल देवता
रीवा के राजा, महाराजा के राजसिंहासन पर नहीं बैठने के पीछे जो कथा प्रचलन में है उस पर युवराज दिव्यराज सिंह कहते हैं कि विंध्य का जो हिस्सा है, इसे श्रीराम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण जी को सौंपा था। लक्ष्मण का शासन होने के बाद भी वह कभी राजसिंहासन पर नहीं बैठे थे। उन्होंने राज्य का संचालन तो किया, लेकिन राजा के रूप में हमेशा श्रीराम ही रहे। 13 वीं शताब्दी में बाघेल राजवंश ने बांधवगढ़ को राजधानी बनाई थी, तब भी सिंहासन पर कोई महाराजा नहीं बैठे। 1617 में रीवा को राजधानी बनाया गया और महाराजा बाघ्रवेश ने राजगद्दी पर लक्ष्मण जी के साथ भगवान श्रीराम को विराजमान किया था, तभी से ये परंपरा अनवरत चली आ रही है।
राम वनवास की तरह चलती है रीवा रियासत
इतिहासकार असद खान ने बताया कि ऐसा केवल रामचरित मानस में ही हुआ है। जब श्री राम के भाई भरत ने अपने बड़े भाई की चरण पादुका को सिंहासन पर विराजिंत कर खुद को उनका सेवक मानकर राज्य का संचालन किया था। भरत सिंहासन का सेवक मानकर खुद को कार्यकारी राजा मानते थे। इसी तरह रीवा के राज परिवार के लोग राम-लक्ष्मण को ही अपना राजा मानते हैं और गद्दी पर उन्हें ही विराजित करते। जबकि खुद सेवक की भूमिका में रहकर राज्य का संचालन करते हैं।
लोकमान्यता-श्री राम ने चित्रकूट में लक्ष्मण को सौंपा था राजभार
लोकमान्यता के मुताबिक वनवास के दौरान भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण जब राजपाट छोड़कर निकले और चित्रकूट पहुंचे। तब चित्रकूट में भगवान राम ने समूचे विंध्य का इलाका अनुज लक्ष्मण को सौंपा था। रीवा रियासत के बघेल राजवंश ने लक्ष्मण को अपना राजा मानते हुए उनका अनुसरण किया और भगवान राम को अपने सिंहासन यानी गद्दी पर विराजमान किया। खुद उनके सेवक बन गए। 22 जनवरी को अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा वाले दिन रीवा के राजाधिराज राज सिंहासन पर विराजमान होकर शहर की सवारी पर भी निकले थे।
महाराजा दिव्यराज ने कहा-35 पीढ़ियों से एक ही परंपरा
राजघराने से महाराजा पुष्पराज सिंह के बेटे दिव्यराज सिंह ने बताया कि भगवान श्रीराम के भाई लक्ष्मण हमारे कुल देवता हैं। हमारी पुरानी राजधानी बांधवगढ हुआ करती थी, जहां से फिर रीवा को राजधानी के रूप में चुना गया। 35 पीढ़ी में यहां के राजा कभी गद्दी पर नहीं बैठे, लेकिन उनकी राजशाही ठाटबाट आज भी कायम है। ये परम्परा और नियम है, जिसे हर पीढ़ी का व्यक्ति स्वीकार करता ही है। दिव्यराज सिंह कहते हैं कि बघेल रियासत के पितृ पुरुष व्याघ्रदेव उर्फ बाघ देव गुजरात से चलकर विंध्य आए थे। चित्रकूट के आसपास उन्होंने ठिकाना बनाया और राज्य का विस्तार करते हुए बांधवगढ़ तक चले गए थे। बघेल रियासत ने हमेशा ही लक्ष्मणजी को आराध्य माना और उनकी पूजा की।
तीन रूपों में राजाधिराज की पूजा
राजाधिराज को तीन रूप भगवान विष्णु, श्रीराम-सीता और श्रीराम-लक्ष्मण-सीता के रूप में पूजा जाता है। महाराजा पुष्पराजसिंह युवराज पुत्र दिव्यराज सिंह के साथ पूजा कर रहे हैं। हर साल दशहरे के दिन राजधिराज की गद्दी पूजन के बाद चल समारोह निकाला जाता है। दिव्यराज सिंह कहते हैं कि रीवा को राजधानी बनाने के बाद 1618 में लक्ष्मणबाग का कार्य भी प्रारंभ किया गया था। यहां चारों धाम के देवताओं के मंदिर बनाए गए। भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के हिस्से में राज्य आने के कारण लक्ष्मण की भी यहां पूजा होती है। इसलिए यहां लक्ष्मणबाग का निर्माण कराया गया।
तीन राज्यों में फैला था रीवा राज्य
रीवा राज्य वर्तमान के तीन राज्यों में फैला था। जिसका दायरा काफी बड़ा हुआ करता था। रीवा बघेल वंश की राजधानी थी। रीवा राज्य वर्तमान के मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ के इलाकों में फैला था। रीवा रियासत में वर्तमान झांसी,ललितपुर, निवाड़ी, टीकमगढ़, छतरपुर, दमोह (उत्तरी भाग) पन्ना, सतना, चित्रकूट, बांदा, महोबा (दक्षिणी भाग), प्रयागराज (इलाहाबाद कि दक्षिणी तहसील), मिर्जापुर, सोनभद्र, रीवा, सीधी, सिंगरौली, कोरिया जिला, कटनी, शहडोल, अनूपपुर, उमरिया,डिंडोरी जिले शामिल थे। इतने बड़े राज्य का संचालन रीवा शहर से किया जाता था। जो रेवा नदी के किनारे होने के कारण रीवा नाम से जाना जाता था। लेकिन वर्तमान के तीन राज्य में फैले रीवा राज्य के सिंहासन पर कोई महाराजा नहीं बैठता था।
दीपावली पर तोप से दी जाती थी सलामी
इतिहासकार असद खान ने बताया कि रीवा राज्य में दीपावली पर तीन प्रमुख जगह पर भगवान राम लक्ष्मण और सीता की विशेष पूजा-आराधना की जाती थी। जहां पूजा के बाद तोप से सलामी भी दी जाती थी। पहला स्थान है-किला परिसर में मौजूद भगवान राजाधिराज का मंदिर,दूसरा स्थान है लक्ष्मण बाग और तीसरा स्थान है बांधवगढ का मंदिर। हलांकि अब तोप से सलामी नहीं दी जाती पर बाकी की परंपरा उसी तरह निभाई जाती है।
राजाधिराज के विशेष पूजन की परंपरा
जन्माष्टमी में बांधवगढ तो दीपावली में लक्ष्मणबाग और किले में उत्सव की परंपरा है। बांधवाधीश का मंदिर सभी श्रद्धालुओं के लिए साल में एक ही बार खोला जाता है। जन्माष्टमी पर श्रद्धालु वन वन्य प्राणियों के बीच लगभग दस किलोमीटर का सफर तय कर बांधवाधीश के दर्शन करते हैं। मंदिर में भगवान राम लक्ष्मण और सीता की मूर्ति है। मंदिर में जन्माष्टमी पर विशेष साज सज्जा होती है। जबकि दीपावली पर किले में मौजूद राजाधिराज ही प्राचीन समय से आकर्षण और लोगों की आस्था का केंद्र रहे हैं।
मुख्य पुजारी ने बताया कि दीपावली के 20 दिन पहले से ही राजाधिराज के पूजन की तैयारी शुरू हो जाती है। जहां दशहरे पर भगवान की प्रथम पूजा की जाती है। जबकि दीपावली पर भगवान की विधिवत पूजा-आराधना की जाती है। नियमित रूप से तीन बार आरती की जाती है। सुगंधित पुष्प,इत्र के साथ हर बार नए वस्त्र उन्हें पहनाए जाते हैं। दीपावली पर मंदिर में 56 भोग लगाया जाता है।